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पानी और जलवायु परिवर्तन

जनजागृति मंच
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जल, जहाँ  एक ओर जीवन का आधार है, वहीं दूसरी ओर प्रकृति का संचालक एवं जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारक भी है। किसी क्षेत्र में जल एवं हरियाली की उपलब्धता अथवा अनुपलब्धता उस क्षेत्र में वर्षा की  मात्रा, बाढ़ या  सूखे की परिस्थिति का निर्धारण करती है। वर्तमान में वर्षा जल को संरक्षित करना इसलिए भी आवश्यक है क्यों कि हमारे लिए उपलब्ध पेयजल के अन्य दोनो स्त्रोत सतही जल एवं भूमिगत जल अत्यंत संकटपूर्ण अवस्था में पहुँच गये हैं।

वर्षा जल को संरक्षित करने से पूर्व फिल्टर करना आवश्यक है। इस संरक्षित जल का उपयोग न केवल पेयजल के रूप में किया जा सकता है वरन् भूमिगत जल भण्डार में वृद्धि भी की जा सकती है। जिससे निरन्तर घटते भूजल स्तर में व्यापक सुधार तो होगा ही साथ ही भूमिगत जल में घुले हुए हानिकारक रसायनों की सांद्रता में भी कमी आएगी। खेती में प्रयुक्त पेस्टीसाइड एवं रसायनिक खाद के उपयोग से ये रसायन रिस कर भूमिगत जल में मिल गये हैं। बेतहाशा भूमिगत जल दोहन से जल का स्तर नीचे चला गया जिससे वातावरण की ऑक्सीजन को भूमिगत खनिज लवणों से प्रतिक्रिया करने का अवसर मिला। जिसका दुष्परिणाम आज हमें बहुत से स्थानों पर बोरवेल से निकलने वाले जल में विभिन्न रसायनों की अधिकता एवं उनका स्वास्थ्य विपरीत प्रभाव के रूप में परिलक्षित है।

आज भी जिन क्षेत्रों में लोग सरकारों द्वारा चलाई जा रही पेयजल एवं सिंचाई योजनाओं का लाभ उठाकर आसानी से जल प्राप्त कर रहे हैं, बिजली का बटन दबाते ही पम्प के माध्यम से जब चाहें तब प्राप्त करने की सुविधा मिलने से जल का दुरूपयोग करने में लोग जरा भी संकोच नहीं करते। जब जल मेहनत करके प्राप्त किया जाता था, जैसे कुँए से रस्सी खींचकर निकाला जाता था अथवा कहीं दूर से लाया जाता था तो लोग जल का महत्व समझते थे। सबमरसिबल पम्प का प्रचलन बढ़ने से भी भूमिगत जल के दोहन में व्यापक वृद्धि हुई। जिससे लोग सतही जल के प्रमुख स्त्रोत जैसे – नदी, जलाशय, झील, तालाब, पोखरे एवं कुँए के प्रति उदासीन हो गये। हमारी नदियां प्रदूषित होती गईं, झील, जलाशय सूखते गये, पोखरे-तालाबों को पाटा जाने लगा, एवं कुँए साफ सफाई के अभाव में दम तोड़ते गये। परम्परागत जलविज्ञान को भूलकर वर्षा जल संरक्षण का कोई प्रयास नहीं किया गया। परिणामतः आज जल प्राप्त करने के तीनों स्त्रोतों पर संकट उत्पन्न हो गया।

वैज्ञानिक तथ्य है- ‘‘सतही जल भूमिगत जल को भरता है एवं भूमिगत जल सतही जल को पोषित करता है।’’ आज क्या हो रहा है? सतही जल या तो सूख रहा है या इतना प्रदूषित हो गया है कि इससे भूमिगत जल भी प्रदूषित हो रहा है। अति दोहन से भूमिगत जल इतना नीचे चला गया कि वह सतही जल को पोषित करने में असमर्थ हो गया। धरती की ऊपरी सतह की नमी समाप्त हो गयी। सतही जल सूखने से वाष्पन होना कम हो गया जिससे बादलों के निर्माण में बाधा उत्पन्न होने लगी, वर्षा की मात्रा में गिरावट आने लगी एवं हरियाली बेहद कम हो गयी। जिससे वर्षा के माध्यम से मिलने वाला सतही जल भी कम हो गया। अखबार में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिसके अनुसार उत्तराखण्ड में बादल फटने अर्थात तीव्र गति से वर्षा होनी की घटनाएँ बढ़ रही हैं। जिससे वहां की पारिस्थितिकी के अनुसार भूस्खलन में वृद्धि हुई। इसका जिम्मेदार बताया गया बांधों के लिए निर्मित जलाशयों की बढ़ रही संख्या को। इन जलाशयों के जल के वाष्पन से तीव्र गति से बादल बन रहे हैं एवं पहाड़ों से टकराकर वहीं बरस जा रहे है। अतः स्पष्ट है सतही जल बादल निर्माण एवं वर्षा की मात्रा के लिए प्रमुख कारक है। जयपुर के पास स्थित लापोढि़या गाँव जो कि पहले मरूस्थल था आज लक्ष्मण सिंह जी की चौका तकनीकी का उपयोग करके हरित क्षेत्र में परिवर्तित हो चुका है। हरियाली बढ़ने से अब यहाँ वर्षा में भी वृद्धि हुई है।

अतः स्पष्ट है वर्तमान जल संकट का एकमात्र समाधान वर्षा जल संरक्षण में है। अपने खेतों में वर्षा का जल रोककर, खेत तालाब बनाकर, पोखरों, कुओं में संरक्षित करके जहाँ एक ओर भूमिगत जल स्तर में वृद्धि होगी ही, बाढ़ की विभीषिका भी कम की जा सकती है, वहीं बादलों के बनने की प्रक्रिया होगी जिससे पुनः वर्षा सूखे एवं अकाल से मुक्ति प्रदान करने में सहायक होगी।

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